hindisamay head


अ+ अ-

कविता

मठ

अरुण देव


मठ पुराना था पर प्राचीन नहीं
आलस्य और जड़ता ने
संत के विचारों को बदल दिया था ठस दिनचर्या में
संसार से कटे पर सांसारिकता में लिप्त साधु
सुबह शाम कुछ पदों को बाँचते थे

गगन गुफा से अब नहीं झरता था निर्झर
निनाद में अनहद नाद कौन सुनता ?
आरती में जलता था दीया
पर उसमें उन महान संस्कृतियों के मिलन से
पैदा हुई वह चमक अब न थी
शब्द-भेद को बूझने वाला कोई न था
मद्धिम थी ब्रहम ज्ञान का लौ
घंटी के शोर में दब गए थे कबीर, पलटू, दादू के पद

महंत के संदूक में आदि संत के वाणी की हस्तलिखित प्रतियाँ थीं
जिन्हें वह बार-बार गंगा में प्रवाहित करने की बात कहता था
उसे अब बुरी लगने लगी थी
आदि संत की टोका-टोकी
वाणी का विवेक विचलित करता था

हाट में बैठी माया के फंदे में आ गया था यह पुराना मठ
हंसा उड़ चला था और
हृदय का दर्पण धुँधला पड़ गया था
विकट पंथ पर अब न दरकार थी
घट के ज्योति की

वर्ष के किसी दिन लगता था मेला
मठ के परंपरागत शिष्य, सामाजिक जुटते
महंत माया में जल रहे संसार की बात करता
कनक, कामिनी से बचने की सलाह देता
शब्द भेद की चर्चा करता और
शून्य शिखर की ओर इशारे करता

लोग सुनते कि मठ के पास इतने बीघा जमीन है
इस बार ले लिया गया है दो ट्रैक्टर
और महंत को मिल ही गया अंततः रिवाल्वर का लाइसेंस

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में अरुण देव की रचनाएँ